लेखक ने स्वीकार किया है कि लोगों ने उन्हें भी धोखा दिया है, फिर भी वे निराश नहीं है। आपके विचार से इस बात का क्या कारण हो सकता है?
लेखक ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि उसने लोगों से धोखा खाया है, फिर भी वह निराश नहीं है। मेरे विचार से इसका कारण यह है कि
(क) लेखक जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखने वाला व्यक्ति है।
(ख) वह ठगे जाने या धोखा खाने जैसी घटनाओं का बहुत कम हिसाब रखता है।
(ग) उसके साथ छल-कपट जैसी घटनाएँ हुई हैं, पर विश्वासघात नहीं या बहुत कम हुआ है।
(घ) लेखक के साथ ऐसी बहुत-सी घटनाएँ हुई हैं जब लोगों ने अकारण ही उसकी मदद की है।
समाचार-पत्रें, पत्रिकाओं और टेलीविजन पर आपने ऐसी अनेक घटनाएँ देखी-सुनी होंगी जिनमें लोगों ने बिना किसी लालच के दूसरों की सहायता की हो या ईमानदारी से काम किया हो। ऐसे समाचार तथा लेख एकत्रित करें और कम-से-कम दो घटनाओं पर अपनी टिप्पणी लिखें।
ऐसे दो समाचार जिनमें ईमानदारी तथा बिना लालच के दूसरों के लिए काम किया गया हैः
1. बच्चों को मुफ्त कोचिंग क्लास दे रहा 20 साल का यह युवा
एक तरफ जहां समाज के ठेकेदार प्रोफेशनल कोचिंग क्लासेज क नाम पर शिक्षा को बेचने और खरीदने का धंधा चला रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ 22 साल का रोहित झुग्गी-बस्ती में रहने वाले बच्चों को मुफ्त कोचिंग क्लास दे रहा है। जिस उम्र में युवा अपने करियर को चमकाने की रेस का हिस्सा बने हुए हैं। उस उम्र में रोहित मासूम बच्चों के हाथों में कलम थमाकर उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहा है।
रोहित बताते हैं कि बचपन में उन्होंने बड़ी मुसीबतें उठाकर अपनी पढ़़ाई पूरी की हैं। इसलिए वह बच्चों को शिक्षा का पाठ पढ़ाकर उन्हें अपने कदमों पर खड़ा होने के लिए मदद कर रहे हैं। उनकी कोचिंग क्लास शाम को रोहिणी के एक पार्क में होती है। करीब 2 साल से चल रही इस मुफ्त कोचिंग क्लास में रोजाना 80 से 100 बच्चे आते हैं। यहां आने वाला हर बच्चा बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखता है। यह नेक काम करने में रोहित के कुछ दोस्त भी उसकी मदद करते हैं। रोहित कहते हैं कि इन बच्चों को शिक्षा का महत्व समझाना ही उनकी जिंदगी का लक्ष्य है।
अमर उजाला, 05 जनवरी 2019, नोएडा संस्करण
2. एचआईवी पीड़ित बच्चों के लिए छोड़ी नौकरी
मैं उस वक्त मेडिकल की पढ़ाई कर रही थी। पढ़ाई के साथ-साथ एक एनजीओ के साथ भी जुड़ गई थी, जो एड्स से पीड़ित लोगों के लिए काम करती थीं। एनजीओ में वालंटियर का काम करने के साथ-साथ पूरा ध्यान अपनी पढ़ाई पर केंद्रित कर दिया था। इस दौरान देखती थी कि बहुत सारे ऐसे बच्चे थे, जिन्हें HIV की बीमारी अपने माता-पिता से मिली थी। उनकी बीमारी एडंवास स्टेज में पहुंचने के बाद उनकी मौत हो गई और अब बच्चे उनके रिश्तेदार के भरोसे थे। मगर वो रिश्तेदार ढंग से उनको दवाईयां तक नहीं दे रहे थे।
ऐसी कई घटनाओं ने मुझे अंदर से हिला कर रख दिया। इसलिए मैंने ऐसे लोगों के साथ वक्त बिताना शुरू कर दिया। इनमें एक मासूम बच्ची भी थी, जो बहुत कम बातें करती थीं। मैं वक्त निकालकर उस लड़की से बात करने के लिए उसके पास बैठ जाती थी। इसके लिए मुझे अपनी नौकरी तक छोड़नी पड़ी। उससे कुछ बुलवाने की कोशिश करती थी। इसी कोशिश में कई-कई घंटे बीत जाते थे फिर कुछ दिन गुजरने लगे। मगर मैं बच्ची को कुछ बुलवा नहीं पाई थी। कई बार अपनी कोशिश में असफल होने पर थोड़ी सी परेशान रही फिर भी मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी। आज वही बच्ची अपनी भयंकर बीमारी के बारे में जानते हुए भी खुलकर हंसती बोलती है।
न्यूज 18, 07 मार्च 2019, नोएडा संस्करण
लेखक ने अपने जीवन की दो घटनाओं में रेलवे टिकट बाबू और बस कंडक्टर की अच्छाई और ईमानदारी की बात बताई है। आप भी अपने या अपने किसी परिचित के साथ हुई किसी घटना के बारे में बताइए जिसमें किसी ने बिना किसी स्वार्थ के भलाई और ईमानदारी के कार्य किए हों।
लेखक ने अपने जीवन जुड़ी दो घटनाओं में लोगों की अच्छाई और ईमानदारी का जिक्र किया है। मेरे भाई अमित से जुड़ी ऐस ही एक घटना मुझे याद आती है। शादी के बाद मेरा भाई अपनी पत्नी के साथ हनीमून पर उत्तराखंड गया था। दोनों रोडवेज बस से वहां जा रहे थे। तभी बस में दोनों की आंख लग गई और कोई वहां से उनका कपड़ों से भरा बैग लेकर फरार हो गया। इस बैग में उनके खर्च के सारे पैसे थे। इस बात की चिंता पूरे रास्ते दोनों की सताती रही। दोनों पूरे रास्ते उस चोर कोसते रहे।
यह सच बात है कि दुनिया में भले और ईमानदार लोगों की कमी नहीं है। शिवपुरी (उत्तराखंड) पहंचते ही दोनों बस से उतरकर अपने कैंप की तरफ लौटने लगे। तभी पीछे से एस शख्स की आवाज सुनाई दी, जिसने जोर से आवाज लगाते हुए कहा कि भाई साहब अपना बैग कहां छोड़े जा रहे हो। अपना खोया हुआ बैग देखकर दोनो की जान में जान आ गई। पास आकर उस व्यक्ति ने कहा कि वो गलती से अपना बैग समझकर आपका बैग ले गया था। उसने यह भी बताया कि आपका पूरा सामान और पैसे सुरक्षित हैं।
दोषों का पर्दाफाश करना कब बुरा रुप ले सकता है?
दोषों का पर्दाफाश करना तब बुरा रूप् ले सकता है जब उसका उद्देश्य किसी व्यक्ति का केवल मजाक उड़ाना हो| इस पर्दाफाश के पीछे किसी के दोष को सुधारने का उद्देश्य न होकर उसकी बदनामी करना हो। इसके अलावा इस पर्दाफाश के पीछे किसी की भलाई का लक्ष्य न हो, किसी संस्था या प्रतिष्ठान को बदनाम करना हो, सत्यता को बिना जाने-समझे लोगों के सामने लाना, अपनी निजी वैमनस्यता का बदला लेने की भावना हो या स्वयं की अधिकाधिक महत्वाकांक्षा के तहत अपने चैनल आदि की प्रसिद्धि बढ़ानी हो। इस प्रकार की स्थितियों में किया गया दोषों का पर्दाफाश बुरा रूप ले सकता है|
आजकल के बहुत से समाचार पत्र या समाचार चैनल ‘दोषों का पर्दाफाश’ कर रहे हैं। इस प्रकार के समाचारों और कार्यक्रमों की सार्थकता पर तर्क सहित विचार लिखिए।
आजकल बहुत से समाचार पत्र या समाचार चैनल दोषों का पर्दाफाश कर रहे हैं। इस तरह के कार्यक्रमों की सार्थकता तभी है, जब इनको पढ़कर या देखकर नागरिक जागरूक हो जाएँ। वे अपराधियों या दोषियों से बच सकें तथा अपने आसपास घटनाओं को दोबारा न घटने दें। इन कार्यक्रमों की सार्थकता तभी है जब पर्दाफाश करने वाले कार्यक्रमों के पीछे सच्चाई और ईमानदारी तथा जनकल्याण की भावना छिपी हो। यदि इनके पीछे स्वार्थ, धनोपार्जन या चैनलों की प्रसिद्धि बढ़ाने की लालसा छिपी हो तो इन कार्यक्रमों की कोई सार्थकता नहीं है।
निम्नलिखित के संभावित परिणाम क्या-क्या हो सकते हैं? आपस में चर्चा कीजिए, जैसे
ईमानदारी को मूर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है। परिणाम- भ्रष्टाचार बढ़ेगा।
1- फ्सच्चाई केवल भीरु और बेबस लोगों के हिस्से पड़ी है।-------------------------------
2- फ्झूठ और फरेब का रोजगार करनेवाले फल-प्फ़ूल रहे हैं।-------------------------------
3- हर आदमी दोषी अधिक दिख रहा है, गुणी कम-------------------------------
1. परिणाम- सच्चे और ईमानदार लोगों का नाजायज फायदा उठाना।
2. परिणाम- सच्चाई और ईमानदारी का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
3. परिणाम- परिणाम- लोगों का एक दूसरे पर भरोसा उठता जा रहा है।
आपने इस लेख में एक बस की यात्र के बारे में पढ़ा। इससे पहले भी आप एक बस-यात्र के बारे में पढ़ चुके हैं। यदि दोनों बस-यात्रओं के लेखक आपस में मिलते तो एक-दूसरे को कौन-कौन सी बातें बताते? अपनी कल्पना से उनकी बातचीत लिखिए।
इससे पहले पाठ में लेखक हरिशंकर परसाई द्वारा अपनी बस-यात्रा का वर्णन किया गया है, जिसमें बस खराब होने के कारण वे समय पर गंतव्य तक पहुँचने की आशा छोड़ देते हैं। इस पाठ में लेखक यात्रा करते हुए कुछ नया एवं अलग अनुभव करता है। ये दोनों लेखक जब मिलते तो कुछ इस तरह बातचीत करते-
हरि- नमस्ते भइया हजारी! कैसे हो?
हजारी - नमस्ते! मैं एकदम स्वस्थ हूं, तुम बताओ कैसे हो?
हरि- अरे क्या बताएं, कल ही एक ऐसी बस में सफर करके आ रहा हूं जिसकी यात्रा मैं जिंदगीभर नहीं भूलूंगा।
हजारी - ऐसा क्या विशेष था उस यात्रा में जो तुम इतने चिंतित नजर आ रह हो?
हरि- भइया, जिस बस की मैं बात कर रहा हूं वो बस के नाम पर एक खटारा वाहन था।
हजारी - क्या तुम अपने गंतव्य पर समय से पहुँच गए थे?
हरि- ऐसी खटारा बस भला किसे मंजिल तक पहुंचा सकती है। बस रास्ते में खराब हो गई थी। मुझे तो लग रहा था अब आगे की जिंदगी इसी बस में गुजर जाएगी?
हजारी - बड़ी हैरानी की बात है कि कल मैंने भी बस में यात्रा की थी, और विंडबना तो देखो मेरी भी बस रास्ते में खराब हो गई।
हरि- कैसे?
हजारी- मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ यात्रा कर रहा था और बस रास्ते में खराब हो गई, वो भी किसही सुनसान जगह पर।
हरि- बस किसी लुटेरे ने तो नहीं लूटी?
हजारी - नहीं, बस का कंडक्टर साइकिल लेकर दौड़ पड़ा।
हरि- कहीं वो लुटेरो को तो सूचित करने नहीं चला गया?
हजारी - सब ऐसा ही सोच रहे थे। इसलिए सबने ड्राइवर को बंधन बनाने की योजना भी बना ली थी
हरि- फिर क्या हुआ?
हजारी - फिर अचानक से कंडक्टर एक नई बस का इंतजाम कर लाया और साथ ही बच्चों के लिए दूध भी ले आया।
हरि- आगे क्या हुआ?
हजारी - सभी ने कंडक्टर का धन्यवाद किया और ड्राइवर से माफी माँगी।
हरि- कई बार सच में इंसान को समझने में कितनी गलती हो जाती है।
हजारी - क्या करें, यह गिरते मानवीय मूल्यों का प्रभाव है।
हरि- अच्छा, अब मैं चलता हूँ। फिर मिलेंगे, नमस्ते!
हजारी - नमस्ते!
लेखक ने लेख का शीर्षक ‘क्या निराश हुआ जाए’ क्यों रखा होगा? क्या आप इससे भी बेहतर शीर्षक सुझा सकते हैं?
लेखक ने इस लेख का शीर्षक ‘क्या निराश हुआ जाए’ इसलिए रखा होगा क्योंकि मौजूदा हालातों में भ्रष्टाचार, चोरी डकैती, बेईमानी, लूट-पाट की घटनाओं से जो माहौल बन गया है उससे मानवीय मूल्य को काफी क्षति पहुंची है। इसके बावजूद लेखक निराश नहीं है और वह चाहता है कि दूसरे भी निराश न हों। इसलिए उनसे ही पूछना चाहता है कि ‘क्या निराश हुआ जाए?’ अर्थात् निराश होने की जरूरत नहीं है। इसका अन्य शीर्षक होगा ‘उम्मीदों का सवेरा’, या ‘आशावादी’ भी हो सकता है।
यदि ‘क्या निराश हुआ जाए’ के बाद कोई विराम-चिह्न लगाने के लिए कहा जाए तो आप दिए चिह्नों में से कौन-सा चिह्न लगाएँगे? अपने चुनाव का कारण भी बताइए। -, !, !, ?, _, -, ----- ।
क्या निराश हुआ जाए’ के बाद मैं प्रश्नवाचक चिह्न (?) का इस्तेमाल करुंगा क्योंकि लेखक समाज से सवाल कर रहा है कि क्या हमारे समाज में इंसान के नैतिक मूल्य पूरी तरह समाप्त हो चुके हैं। यदि लोगों का जवाब ‘हाँ’ होगा तो वह उन्हें छोड़कर उनसे जीवन में आशा करने की सलाह देगा।
आदर्शों की बातें करना तो बहुत आसान है पर उन पर चलना बहुत कठिन है। क्या आप इस बात से सहमत हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
आदर्शों की बातें करना तो बहुत आसान है पर उन पर चलना बहुत ही मुश्किल है। मैं भी इस बात से पूरी तरह सहमत हूं। ईमानदारी की बातें करने वाले और उस पर ज्ञान देने वालों की कमी नहीं है। लेकिन जब वास्तव में ईमानदारी दिखाने का समय आता है तब लोग अपने स्वार्थ को प्राथमिकता देने लगते हैं। असल में ज्यादातर शक्तिशाली व्यक्ति प्रभुत्व हासिल करने के लिए कभी सच्चाई और ईमानदारी से काम नहीं करते। वहीं जो कमजोर हैं उनके पास ईमानदारी दिखाने के अलावा और कुछ नहीं। स्वार्थपर्ता और प्रभुत्व का लालच इंसान को हमेशा ईमानदारी के मार्ग से भटकाने का काम करता है।
हमारे महान मनीषियों के सपनों का भारत है और रहेगा।य्
1- आपके विचार से हमारे महान विद्वानों ने किस तरह के भारत के सपने देखे थे? लिखिए।
2- आपके सपनों का भारत कैसा होना चाहिए? लिखिए।
1. मेरे विचार से हमारे महान विद्वानों ने जिस तरह के सपनों का भारत देखा था वो सच्चाई और ईमानदारी की बुनियाद पर टिका हुआ था। वो एक ऐसा देश है जहां विभिन्न धर्म और जाति के लोग एक साथ मिलजुलकर रह सकते थे। वहां लोगों में ईर्ष्या या द्वेष का नहीं बल्कि समानता और एकता का भाव था। चोरी, डकैती, लूटमार, पाखंड और तानाशाही के अभाव ने एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना की जा सकती है। सपनों के उस भारत में हम लोगों के बीच आपसी भाईचारे और अपनेपन का एहसास देख सकेंगे।
2. मेरे सपनों का भारत असमानता, जाति-प्रथा और अनैतिकता से मुक्त होना चाहिए। वह एक ऐसा राष्ट्र होना चाहिए जहां लोगों को रोजगार और शिक्षा का पूरा अधिकार हो। जहां लोग स्वस्थ भी हों और शिक्षित भी। इंसानों के बीच आपसी भाईचारा हो। आतंकवाद और सांप्रदायिकता से मुक्त होना चाहिए। देश के नौजवानों के कदम नशाखोरी और बेईमानी की बजाए संपन्नता और समृद्धि की तरफ बढ़ रहे हों।
दो शब्दों के मिलने से ‘समास’ बनता है। समास का एक प्रकार है- द्वंद्व समास। इसमें दोनों पद प्रधान होते हैं। जब दोनों पद प्रधान होंगे तो एक-दूसरे में द्वंद्व (स्पर्धा, होड़) की संभावना होती है। कोई किसी से पीछे रहना नहीं चाहता, जैसे- चरम और परम = चरम-परम, भीरु और बेबस = भीरु-बेबस, दिन और रात = दिन-रात।
‘और’ के साथ आए शब्दों के जोड़े को ‘और’ हटाकर योजक चिह्न (-) भी लगाया जाता है। कभी’कभी एक साथ भी लिखा जाता है। पाठ से द्वंद्व समास के बारह उदाहरण ढूँढ़कर लिखिए।
पाठ से द्वंद्व समास के बारह उदाहरण:
पाठ से तीनों प्रकार की संज्ञाओं के उदाहरण खोजकर लिखिए।
पाठ से तीनों प्रकार की संज्ञाओं के उदाहरण: