(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता कैसे प्राप्त होती है?
मीठी वाणी जीवन में आत्मिक सुख व शांति प्रदान करती है। जब हम मीठी वाणी बोलते हैं तो इससे सुनने वाले को अच्छा लगता है और इसलिए वह हमारी बात अच्छे तरीके से सुनता भी है। इसके प्रयोग से संपूर्ण वातावरण सरल व सहज बन जाता है। यह सुननेवाले के मन को प्रभावित और आनंदित करती है। इसके प्रभाव से मन में शत्रुता, कटुता व आपसी ईर्ष्या-द्वेष के भाव समाप्त हो जाते हैं। सही तरीके से बातचीत होने के कारण सुनने वाले और बोलने वाले दोनों को सुख की अनुभूति होती है तथा शांति प्राप्त होती है। इसलिए हमें ऐंसी वाणी बोलनी चाहिए जिसे सुनकर लोग आनंद की अनुभूति करें और शारीरिक रूप से स्वस्थ्य रहें।
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
दीपक दिखाई देने पर अँधियारा कैसे मिट जाता है? साखी के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
इस साखी में कबीर ने दीपक की तुलना उस ज्ञान से की है जिसके कारण हमारे अंदर का अहंकार मिट जाता है। कवि के अनुसार जिस प्रकार दीपक के जलने पर अंधकार अपने-आप दूर हो जाता हैए उसी प्रकार ज्ञानरूपी दीपक के हृदय में जलने पर अज्ञानरूपी अंधकार समाप्त हो जाता है। जबतक हमारे अंदर अहं व्याप्त है तब तक हम परमात्मा को नहीं पा सकते हैं। यहाँ दीपक के प्रकाश को ज्ञान का प्रतीक माना गया है और अँधियारा अज्ञान का प्रतीक है। ज्ञान का प्रकाश होने पर मन में व्याप्त काम, क्रोध, मोह, लोभ, और अहंकार आदि दुर्गुण समाप्त हो जाते हैं और हमारे अन्दर ज्ञान रुपी प्रकाश का संचार होने से वैयक्तिक रूप से भी हम लगातार बेहतर बनते जाते हैं|
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, पर हम उसे क्यों नहीं देख पाते?
हमारा अस्थिर मन सांसारिक विषय-वासनाओं, अज्ञानता, अहंकार और अविश्वास से घिरा रहता है। हम ईश्वर को उचित जगह पर तलाशते ही नहीं हैं। अज्ञान के कारण हम ईश्वर से साक्षात्कार नहीं कर पाते। जिस प्रकार कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ हिरण की नाभि में विद्यमान होता है लेकिन वह उसे जंगल में इधर-उधर ढूँढता रहता है उसी प्रकार ईश्वर हमारे हृदय में निवास करते हैं परंतु हम उन्हें अज्ञानता के कारण मंदिरों, मस्जिदों, गिरिजाघरों व गुरूद्वारों में व्यर्थ में ही खोजते फिरते हैं। कबीर के मतानुसार कण-कण में छिपे परमात्मा को पाने के लिए ज्ञान का होना अत्यंत आवश्यक है।
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
संसार में सुखी व्यक्ति कौन है और दुखी कौन? यहाँ ‘सोना’ और ‘जागना’ किसके प्रतीक हैं? इसका प्रयोग यहाँ क्यों किया गया है? स्पष्ट कीजिए।
कबीरदास के अनुसार जो व्यक्ति केवल सांसारिक सुखों में डूबा रहता है और जिसके जीवन का उद्देश्य केवल खाना, पीना और सोना है, वही व्यक्ति सुखी है। जो व्यक्ति सांसारिक झंझटों से परे होकर ईश्वर की आराधना करता है वही सुखी है। इसके विपरीत जो व्यक्ति संसार की नश्वरता को देखकर रोता रहता है वह दुखी है। ऐसे लोगो को संसार में फैली अज्ञानता को देखकर तरस आता है। कबीर के अनुसार वह व्यक्ति दुखी है जो हमेशा भोगविलास और दुनियादारी में उलझा रहता है। यहाँ पर ‘सोने’ का मतलब है ईश्वर के अस्तित्व से अनभिज्ञ रहना। जो लोग संसारी सुखों में खोए हैं वे सोए हुए हैं इसलिए वे संसार की नश्वरता और क्षण-भंगुरता को समझ नहीं पा रहे हैं। वे सांसारिक सुखों को सच्चा सुख मानकर उनके पीछे भाग रहे हैं। अज्ञानता के कारण ही वे अपना हीरे-सा अनमोल जीवन व्यर्थ गवाँ रहे हैं। ‘जागने’ का मतलब है अपनी मन की आँखों को खोलकर ईश्वर की आराधना करना। ज्ञानी व्यक्ति जानता है कि संसार नश्वर है फिर भी मनुष्य इसमें डूबा हुआ है। यह देखकर वह दुखी हो जाता है। वह चाहता है कि मनुष्य भौतिक सुखों को त्यागकर ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर हो।
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने क्या उपाय सुझाया है?
अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने बड़ा ही कारगर उपाय सुझाया है। स्वभाव की निर्मलता के लिए आवश्यक है कि मनुष्य का मन निर्मल हो। मन तभी निर्मल रह सकता है जब हम उसे विकारों से मुक्त रखेंगे । इसके लिए आवश्यक है कि हम बुरे काम न करें। कबीर ने कहा है कि हमें अपने आलोचक से मुँह नहीं फेरना चाहिए। हमें सदा निंदक अर्थात आलोचना करनेवाले को सम्मान सहित आँगन में कुटी बनाकर रखना चाहिए । ऐसा होने से आलोचक हमारी कमियों को बताता रहेगा ताकि हम उन्हें दूर कर सकें। जिससे मनुष्य के स्वभाव में निर्मलता का भाव उत्पन्न होता है।
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
‘एकै अषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ’- इस पंक्ति द्वारा कवि क्या कहना चाहता है?
कवि इस पंक्ति के द्वारा शास्त्रीय ज्ञान की अपेज्ञा भक्ति व प्रेम की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करना चाहते हैं। इस पंक्ति के द्वारा कबीर ने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति प्रेम का पाठ पढ़ ले तो वह ज्ञानी हो जाएगा। उनके अनुसार जो व्यक्ति उपने आराध्य के लिए प्रेम का एक अक्षर भी पढ़ ले अर्थात् जिसके हृदय में प्रेम तथा भक्ति भाव उत्पन्न हो जाए तो वह अपने आत्मरूप से परिचित हो जाता है। प्रेम और भाईचारे के पाठ से बढ़कर कोई ज्ञान नहीं है। मोटी-मोटी किताबें पढ़कर भी वह ज्ञान नहीं मिल पाता। इस पंक्ति के माध्यम से सचेत करते हुए कवि कहता है कि केवल बड़े-बड़े ग्रंथ पढ़ लेने से ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती बल्कि इसके लिए मन को सांसारिक मोह-माया से हटाकर ईश्वर भक्ति में लगाना पड़ता है।
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
कबीर की उद्धृत साखियों की भाषा की विशेषता स्पष्ट कीजिए ।
कबीर की साखियाँ अवधी भाषा की स्थानीय तथा सधुक्कड़ी बोली में लिखी गई है। इसमें अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, पूर्वी हिंदी तथा पंजाबी के शब्दों का सुंदर प्रयोग हुआ है। कबीर की भाषा में देशज शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। ऐसी बोली बनारस के आसपास के इलाकों में बोली जाती है। यह भाषा आम लोगों के बोलचाल की भाषा हुआ करती थी। कबीर ने अपनी साखियों में रोजमर्रा की वस्तुओं को उपमा के तौर पर इस्तेमाल किया है। अन्य शब्दों में कहा जाए तो कबीर की भाषा ठेठ है। इस तरह की भाषा किसी भी ज्ञान को जनमानस तक पहुँचाने के लिए अत्यंत कारगर हुआ करती थी। कबीर ने अपनी रचना को दोहों के रूप में लिखा है। एक दोहे में दो पंक्तियाँ होती हैं। इसलिए गूढ़ से गूढ़ बात को भी बड़ी सरलता से कम शब्दों में कहा जा सकता है।
(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-
विरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
विरह-व्यथा विष से भी अधिक मारक है, दारुण है। इस व्यथा का वर्णन शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। जब बिरह का साँप तन के अंदर बैठा हो तो कोई भी मंत्र काम नहीं आता है। सर्प और विष का उदाहरण देते हुए कवि ने राम वियोगी की व्यथा का मार्मिक चित्रण किया है। कबीर के अनुसार विरह सर्प की भाँति है। विरह-विष तन में व्याप्त है। यहाँ पर कवि ने प्रेमी के बिरह से पीड़ित व्यक्ति की तुलना ऐसे व्यक्ति से की जिससे ईश्वर दूर हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति हमेशा व्यथा में ही रहता है क्योंकि उसपर किसी भी दवा या उपचार का असर नहीं होता है।
(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढ़ूँढ़ै बन माँहि।
मनुष्य के घट (शरीर) में ही परमात्मा का वास है अर्थात् शक्ति का स्त्रोत हमारे भीतर है पर इसके प्रति हमारा विश्वास नहीं। हिरण की नाभि में कस्तूरी रहता है जिसकी सुगंध चारों ओर फैलती है। हिरण इससे अनभिज्ञ पूरे वन में कस्तूरी की खोज में मारा मारा फिरता है। इस दोहे में कबीर ने हिरण को उस मनुष्य के समान माना है जो ईश्वर की खोज में दर दर भटकता है। कबीर कहते हैं कि ईश्वर तो हम सबके अंदर वास करते हैं लेकिन हम उस बात से अनजान होकर ईश्वर की खोज में तीर्थ स्थानों के चक्कर लगाते रहते हैं। उसकी नाभि में ही कस्तूरी है पर उसे उसका बोध नहीं और उस सुगंध की खोज में वह स्थान-स्थान पर भटकता फिर रहा है।
(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।
कबीर के अनुसार जब तक मैं- अर्थात् अहंकार का भाव मन में रहता है तब तक वहाँ ईश्वर का वास नहीं हो सकता और मन में अज्ञान रूपी अंधकार ही समाया हुआ रहता है। जब मनुष्य का मैं यानि अहँ उसपर हावी होता है तो उसे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती| जब मनुष्य के मन से यह मैं रुपी अहंकार समाप्त हो जाता है तो उसे ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है और फिर मनुष्य का अस्तित्व नगण्य हो जाता है क्योंकि वह ईश्वर में मिल जाता है। जब मनुष्य असल अपने आपको और ईश्वर को पहचान लेता है तो वह ईश्वर की शक्ति को भी समझ जाता है और फिर उसके मन से अहं और अहंकार पूर्णतः समाप्त हो जाते हैं|
(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
कबीर प्रेम मार्ग की श्रेष्ठता पर बल देते हुए कहते हैं कि शास्त्र पढ़-पढ़कर सारा संसार अपने आपको ज्ञानी समझने लगता है लेकिन यह सत्य नहीं है। मोटी मोटी किताबें पढ़ने से कोई ज्ञानी नहीं बन पाता है। कबीर की दृष्टि से जिसने प्रेम के दो अक्षरों को जान लिया है, वही विद्वान है, पंडित है। वरना युग बीतते जा रहे हैं लेकिन कोइ भी सच्चे अर्थों में पंडित या विद्वान नहीं बन पाया। किसी ने भी किताबें पढ़-पढ़कर वह अलौकिक आनंद प्राप्त नहीं कर पाया जो प्रेम से मिलता है। प्रेम हृदय का भाव है और पढ़ना मस्तिष्क का| प्रेम के मार्ग में पढ़ाई साधक भी हो सकती है और बाधक भी। इसके बदले में अगर किसी ने प्रेम का एक अक्षर भी पढ़ लिया तो वो बड़ा ज्ञानी बन जाता है। विद्या के साथ साथ व्यावहारिकता भी जरूरी होती है।
पाठ में आए निम्नलिखित शब्दों के प्रचलित रूप उदाहरण के अनुसार लिखिए-
उदाहरण- जिवै- जीना
औरन, माँहि, देख्या, भुवंगम, नेड़ा, आँगणी, साबण, मुवा, पीव, जालौं, तास